महात्मा फुले- स्त्री-शिक्षा,न्याय, जाति-विरोध और समता के अग्रदूत
जिनके इरादों में सच्चाई की लौ जलती थी,
अंधेरे समाज में भी जो मशाल बन चलते थे।
मिटा दिए हर भेदभाव के कठोर दायरों को,
महात्मा फुले – एक नाम नहीं, क्रांति के पर्याय थे।

11 अप्रैल को भारत उस महान समाज सुधारक को श्रद्धा से याद करता है, जिसने वंचितों के लिए शिक्षा का दरवाज़ा खोला, विधवा विवाह को सामाजिक स्वीकृति दिलाने के लिए संघर्ष किया, और जातिगत भेदभाव को चुनौती दी — महात्मा ज्योतिराव गोविंदराव फुले। एक कृतज्ञ राष्ट्र उनकी जयंती पर उन्हें कोटि-कोटि नमन करता है।

सामाजिक क्रांति के अग्रदूत-
ज्योतिबा फुले ने 19वीं सदी में भारतीय समाज को झकझोर देने वाले सुधार कार्य किए। उन्होंने नारी शिक्षा, अछूतों के अधिकार, विधवा विवाह और किसान कल्याण को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया।

सादगी से शुरू हुआ असाधारण जीवन-
11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में जन्मे फुले एक माली परिवार से थे। बचपन में ही मां को खोने के बाद उनका लालन-पालन सगुनाबाई नामक दाई ने किया। स्कूल में जातीय भेदभाव के कारण पढ़ाई बीच में छूटी, लेकिन ज्ञान की ललक नहीं रुकी। उन्होंने स्वयं अध्ययन कर सामाजिक कुरीतियों को समझा और चुनौती दी।
पहली बारात में अपमान, आज़ादी की पहली चिंगारी-
ब्राह्मण मित्र की शादी में बारात में शामिल होने पर उन्हें जाति के आधार पर अपमानित किया गया। यह घटना उनके मन में बराबरी और सामाजिक न्याय की भावना को और मजबूत कर गई।

देश का पहला महिला विद्यालय-
3 जुलाई 1848 को उन्होंने पुणे में भारत का पहला महिला विद्यालय खोला। जब कोई अध्यापिका नहीं मिली, तो उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढ़ाया और उन्हें शिक्षिका बनाया। ऊंची जातियों के विरोध, सामाजिक तिरस्कार और अपमान के बावजूद दोनों डटे रहे।
‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना-
24 सितंबर 1873 को उन्होंने ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य शूद्रों और दलितों के शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाना था। यह संस्था भारतीय सामाजिक क्रांति का आधार बनी।
ब्राह्मणवाद और जातिवाद का डटकर विरोध-
फुले पहले व्यक्ति थे जिन्होंने जाति और वर्ण व्यवस्था को खुलकर शोषण का औजार कहा। उन्होंने ब्राह्मण-पुरोहित के बिना विवाह-संस्कार शुरू किए, जिन्हें बाद में मुंबई हाईकोर्ट से मान्यता मिली।

महिलाओं के लिए आश्रय और सम्मान-
फुले ने विधवाओं के लिए आश्रयगृह बनवाया और उनके पुनर्विवाह का समर्थन किया। उनका घर हर जाति और वर्ग के लोगों के लिए हमेशा खुला रहा।
आधुनिक भारत की नींव रखने वाले महापुरुष-
फुले मानते थे कि जब तक समाज जातिवाद और लैंगिक भेदभाव से मुक्त नहीं होता, तब तक देश की उन्नति संभव नहीं। उन्होंने कहा, “समाज सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं, और इससे श्रेष्ठ कोई ईश्वर सेवा नहीं।”
अंतिम विदाई-
ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले की कोई संतान नहीं थी। उन्होंने एक विधवा के बेटे को गोद लिया, जो आगे चलकर डॉक्टर बना। 28 नवंबर 1890 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा। लेकिन उनके विचार आज भी प्रेरणा बनकर जीवित हैं।

प्रधानमंत्री मोदी ने भी किया नमन-
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपनी ‘मन की बात’ में फुले की जयंती से पहले उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की और युवाओं को उनके आदर्शों पर चलने का आह्वान किया।
महात्मा फुले केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचारधारा थे — जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी उस युग में थी। शिक्षा, समता, न्याय और स्वाभिमान के लिए उनका संघर्ष आज के भारत को दिशा देने वाला प्रकाशस्तंभ है।
आज जब हम ‘समानता’ और ‘समावेशिता’ की बात करते हैं, तो यह जरूरी हो जाता है कि हम महात्मा फुले जैसे विचारकों को सिर्फ स्मरण न करें, बल्कि उनके अधूरे सपनों को साकार करने की दिशा में ठोस पहल भी करें।
ज्योतिराव फुले को उनकी जयंती पर शत-शत नमन। आइए, उनके विचारों को केवल इतिहास की किताबों तक सीमित न रखकर वर्तमान की ज़मीन पर उतारें। यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
लेखक-डॉ स्नेह कुमार सिंह कुशवाहा।